नींद में

कभी कभी देखता हूँ ख़ुद को,
बड़ी उँचाई से गिरते हुए,
जैसे हो कोई पहाड़ की चोटी,
या अँधे मोड़ पर कोई गहरी घाटी,
ना सिर्फ़ देखता,
बल्कि महसूस भी करता,
और गिरता भी हूँ!
ना, मयकश नहीं हूँ मैं!

हाँ, गिरता हुआ,
जब मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ,
जब हँस रहा हूँ,
हवा में हूँ अभी भी,
और नीचें,
और नीचें ढहता जा रहा हूँ,
आधारहीन
मैं गिरता जा रहा हूँ!

उपर उठने की जल्दीबाजी में,
इंसान फिसल ही जाता है!
अब समतल का इंतज़ार है,
ताकि फिर से उठूँ,
पूरा गिर चुकने के बाद!

समतल,
क्यूँकि मध्य से इन्सान तो वापस नहीं उठ सकता,
कम से कम इंसान तो नहीं उठ सकता,
ऐसा सिर्फ़ सपनों में होता हैं!
पता नहीं, मैं कहाँ हूँ!

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