जाओ
पता नहीं क्यों लिख रहा हूँ। जिनके लिए लिखा है उनतक बात नहीं पहुँचेगी। लेकिन फिर भी लिख दे रहा हूँ।
बिहार के मजदूरों! तुम अपने घर की तरफ निकल तो गए हो, कुछ पहुँच जाओगे, कुछ मर जाओगे, लेकिन जहाँ तुम्हे पहुँचना चाहिए वहाँ कभी पहुँच पाओगे क्या अगर ऐसे ही चलते रहे तो? ये रास्ता तुम्हें कहीं नहीं ले जाता। अगर तुम्हें घर पहुँचना है, घर में रहना है तो रास्ता बदलना होगा। तुम घर जाने का सपना छोड़ दो। तुम गरीब हो, तुम्हारा कोई घर नहीं है।
भारत में जनसंख्या बहुत है, बेरोजगारी बहुत है, तो सस्ती मजदूरी भी बहुत है। किसी को तुम्हारी मौत से वास्तव में फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे मर जाने से लोगों को मजदूर मिलने बंद नहीं हो जाएंगे। तुम्हारी मौत की खबर पर लोग सोशल मीडिया, न्यूज़पेपर, TV पर दुःख जताएँगे, वहीं पर सरकार से सवाल करेंगे और फिर मूव ऑन कर जाएँगे। "गरीबों का मसीहा" बस एक राजनीतिक जुमला है जिसका इस्तेमाल कर तुम्हें चूतिया बनाया जाता है। तुम्हारे अलावा तुम्हारा कोई नहीं है।
आज से 50 या 100 साल बाद जब फिर से कोई नई महामारी आएगी तब तुम्हारे बच्चें या उनके भी बच्चें ऐसे ही फिर से खाली पैर पैदल सड़कों पर निकल पड़ेंगे घर जाने के लिए। वो भी तुम्हारी तरह ही मरेंगे, कभी भूख से, कभी रेलवे ट्रैक पर, कभी ट्रकों के भारी चक्कों के नीचे पिसकर। ये कोई संभावना नहीं, वास्तविकता है क्योंकि तुमने आज चलने को गलत रास्ता चुन लिया है। तुम्हें अपने घर जाने के बजाय उस नेताजी के घर की तरफ जाने वाले रास्ते पर चलना चाहिए जिसे तुमने अपनी समस्याओं के समाधान के लिए चुना था। तुम्हें 2 रोटी और 4 दिन ज्यादा जी लेने का लालच छोड़ अपना रास्ता बदलना होगा। तुम नहीं हो ज़िंदा, कम से कम अपनी आने वाली पीढ़ियों को तो जीने लायक बना दो ये शरीर भी मर जाए इसके पहले।
तुम अपनी झोपड़ी पर जाने के बजाय उस बंगले पर जाओगे तो उसका फाटक तुम्हें बंद मिलेगा। वो फाटक तुम्हारा स्वागत करने के लिए नहीं खुलने वाला। तुम्हें बलपूर्वक वो फाटक खुलवाना होगा। अगर तुम हज़ारों K.M. पैदल चलकर आ सकते हो तो तुममें वो ज़िद भी है कि उस फाटक के सामने बैठ सको, इतना शोर कर सको कि फाटक के अंदर मोटी दीवारों से घिरे इंसान के कान के पर्दे कांप जाए, वो चैन से सो ना पाए। उस ज़िद का इस्तेमाल सिर्फ़ जान बचाकर घर पहुँच जाने के लिए मत करो। तुमपर लाठी चार्ज किया जाएगा, आँसू गैस के गोले छोड़े जाएँगे, पानी की तेज धार से चोटिल किया जाएगा, झूठे प्रलोभन भी दिए जाएँगे। तूम निर्वस्त्र खाली हाथ खड़े होकर आवाज लगाओगे फिर भी तुमपर गोलियाँ चलेंगी। ये ही तुम्हारी जीत की शुरुआत होगी। तुम मरने से डरना मत क्योंकि मर तो तुम अभी भी रहे हो। अपने बच्चों की चिता सजाकर मरने से बेहतर है उन आलीशान बंगले वालों की चिता सजाकर मरना।
" 1 अणे मार्ग " पर है वो बंगला। बाकी हर शहर में और भी कई बंगले हैं। रास्ता बदल लो। वहाँ चले जाओ। और ध्यान रखना कोई बंगले वाला भेष बदल अपना झंडा लेकर तुम्हारे बीच में ना घुसने पाए। वो हँसुआ- हथौड़ा के झंडे वाले लोग तो बिल्कुल भी नहीं।
बिहार के मजदूरों! तुम अपने घर की तरफ निकल तो गए हो, कुछ पहुँच जाओगे, कुछ मर जाओगे, लेकिन जहाँ तुम्हे पहुँचना चाहिए वहाँ कभी पहुँच पाओगे क्या अगर ऐसे ही चलते रहे तो? ये रास्ता तुम्हें कहीं नहीं ले जाता। अगर तुम्हें घर पहुँचना है, घर में रहना है तो रास्ता बदलना होगा। तुम घर जाने का सपना छोड़ दो। तुम गरीब हो, तुम्हारा कोई घर नहीं है।
भारत में जनसंख्या बहुत है, बेरोजगारी बहुत है, तो सस्ती मजदूरी भी बहुत है। किसी को तुम्हारी मौत से वास्तव में फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे मर जाने से लोगों को मजदूर मिलने बंद नहीं हो जाएंगे। तुम्हारी मौत की खबर पर लोग सोशल मीडिया, न्यूज़पेपर, TV पर दुःख जताएँगे, वहीं पर सरकार से सवाल करेंगे और फिर मूव ऑन कर जाएँगे। "गरीबों का मसीहा" बस एक राजनीतिक जुमला है जिसका इस्तेमाल कर तुम्हें चूतिया बनाया जाता है। तुम्हारे अलावा तुम्हारा कोई नहीं है।
आज से 50 या 100 साल बाद जब फिर से कोई नई महामारी आएगी तब तुम्हारे बच्चें या उनके भी बच्चें ऐसे ही फिर से खाली पैर पैदल सड़कों पर निकल पड़ेंगे घर जाने के लिए। वो भी तुम्हारी तरह ही मरेंगे, कभी भूख से, कभी रेलवे ट्रैक पर, कभी ट्रकों के भारी चक्कों के नीचे पिसकर। ये कोई संभावना नहीं, वास्तविकता है क्योंकि तुमने आज चलने को गलत रास्ता चुन लिया है। तुम्हें अपने घर जाने के बजाय उस नेताजी के घर की तरफ जाने वाले रास्ते पर चलना चाहिए जिसे तुमने अपनी समस्याओं के समाधान के लिए चुना था। तुम्हें 2 रोटी और 4 दिन ज्यादा जी लेने का लालच छोड़ अपना रास्ता बदलना होगा। तुम नहीं हो ज़िंदा, कम से कम अपनी आने वाली पीढ़ियों को तो जीने लायक बना दो ये शरीर भी मर जाए इसके पहले।
तुम अपनी झोपड़ी पर जाने के बजाय उस बंगले पर जाओगे तो उसका फाटक तुम्हें बंद मिलेगा। वो फाटक तुम्हारा स्वागत करने के लिए नहीं खुलने वाला। तुम्हें बलपूर्वक वो फाटक खुलवाना होगा। अगर तुम हज़ारों K.M. पैदल चलकर आ सकते हो तो तुममें वो ज़िद भी है कि उस फाटक के सामने बैठ सको, इतना शोर कर सको कि फाटक के अंदर मोटी दीवारों से घिरे इंसान के कान के पर्दे कांप जाए, वो चैन से सो ना पाए। उस ज़िद का इस्तेमाल सिर्फ़ जान बचाकर घर पहुँच जाने के लिए मत करो। तुमपर लाठी चार्ज किया जाएगा, आँसू गैस के गोले छोड़े जाएँगे, पानी की तेज धार से चोटिल किया जाएगा, झूठे प्रलोभन भी दिए जाएँगे। तूम निर्वस्त्र खाली हाथ खड़े होकर आवाज लगाओगे फिर भी तुमपर गोलियाँ चलेंगी। ये ही तुम्हारी जीत की शुरुआत होगी। तुम मरने से डरना मत क्योंकि मर तो तुम अभी भी रहे हो। अपने बच्चों की चिता सजाकर मरने से बेहतर है उन आलीशान बंगले वालों की चिता सजाकर मरना।
" 1 अणे मार्ग " पर है वो बंगला। बाकी हर शहर में और भी कई बंगले हैं। रास्ता बदल लो। वहाँ चले जाओ। और ध्यान रखना कोई बंगले वाला भेष बदल अपना झंडा लेकर तुम्हारे बीच में ना घुसने पाए। वो हँसुआ- हथौड़ा के झंडे वाले लोग तो बिल्कुल भी नहीं।
Comments
Post a Comment