यायावर
2 मार्च 2020 को मैं पहली बार बर्फ वाले पहाड़ पर गया था। ये सुबह कितनी खूबसूरत थी। मैं इसमें बस थोड़ी देर ही रह पाया। फिर ये सुबह चली गई। तुम इस सुबह से असंख्य गुना खूबसूरत हो। तुम्हारी उपस्थिति से मेरा पूरा दिन इस सुबह सा होता। पूरी रात भी सुबह सी होती। लेकिन फ़ैज़ ने लिखा है - "यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए।" बीते 18 जुलाई को मैंने अज्ञेय की किताब "अरे यायावर याद रहेगा" आर्डर की थी। डिलीवरी वाले किताब को पहले पटना लेकर आए और फिर मेरे पास लाने की बजाय रांची भेज दिया। पता नहीं क्यों। अपने नाम को सिद्ध करती हुई किताब भी यायावर बनी हुई है। आना संदेहास्पद है लेकिन तुम्हारे आते ही मैं तैयारियाँ शुरू कर दूँगा तुम्हारे जाने के समय की। मैं पर्यटन स्थल हूँ या तुम पर्यटक, ये बात अभी तय नहीं है। लेकिन ये तय है कि दोनों में से कोई एक बात ही सच है। ये तय है कि यात्रा जारी रहेगी।